Biography of avanti bai in hindi
जानिए क्या है वीरांगना अवंतीबाई की प्रेरणादायक कहानी
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Bharati Ki Mahan Virangana
वीरांगना अवन्तीबाई : भारतीय वीरांगनाएं में आज आपके लिए प्रस्तुत है कहानी रानी अवंती बाई लोधी की, अपनी वीरता और साहस के जौहर दिखाने वाली एक और वीरांगना थी, जिसने अपनी बुद्धि और राजकौशल से अंग्रेजों के दाँत खट्टे कर दिए थे। यह वीरांगना थी-अवन्तीबाई।
Great Asiatic Warrior Avantibai
रानी अवंती बाई लोधी
भारत के सन 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में महारानी लक्ष्मीबाई के समान अपनी वीरता और साहस के जौहर दिखाने वाली एक और वीरांगना थी, जिसने अपनी बुद्धि और राजकौशल से अंग्रेजों के दाँत खट्टे कर दिए थे। यह वीरांगना थी-अवन्तीबाई ।
मध्य प्रदेश के मंडला जिले में एक छोटी-सी रियासत थी- रामगढ़। रामगढ़ एक मनोरम एवं प्राकृतिक वनस्थली है। निजामशाह के सेनापति मोहनसिंह लोधी के पुत्र गूजर सिंह लोधी ने यहाँ अपना राज्य स्थापित किया था और रामगढ़ को अपनी राजधानी बनाया था।
अवन्तीबाई का जन्म मण्डला की एक छोटी-सी जागीर मनकेड़ी में हुआ था। उनके पिता रावगुलजार सिंह एक जागीरदार होने के साथ ही साथ बड़े नेक और साहसी व्यक्ति थे। उन्होंने अपनी बेटी को राजकुमारों की तरह पाला था तथा अस्त्र-शस्त्र चलाने और घुड़सवारी आदि की शिक्षा दी थी।
अवन्तीबाई विवाह के बाद रामगढ़ की रानी बन गयीं। उनके पति बड़े पराक्रमी योद्धा और कुशल शासक थे। अतः रानी अवन्तीबाई का जीवन खुशियों से भर उठा। कुछ समय बाद अवन्ती बाई ने दो बेटों को जन्म दिया। उनके दोनों बेटे अभी छोटे ही थे कि अवन्ती बाई पर विपत्तियों के पहाड़ टूट पड़े।
अवन्तीबाई ने जिस समय रामगढ़ राज्य की बागडोर अपने हाथों में ली, उस समय भारत में लॉर्ड डलहौजी का शासन था और वह किसी न किसी बहाने से छोटी-छोटी रियासतों को हड़प रहा था। रामगढ़ रियासत पर भी डलहौजी की दृष्टि पहले से ही थी। रानी अवन्तीबाई के सिंहासन पर बैठते ही उसे रामगढ़ को हड़पने का अवसर मिल गया।
रानी अवन्तीबाई के शासन संभालते ही लार्ड डलहौजी ने उन्हें एक पत्र भेजा जिसमें रामगढ़ राज्य की देखभाल के लिए एक अंग्रेज अधिकारी रखने की बात कही गयी थी।
रानी अवन्तीबाई ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया तथा लाई डलहौजी को पत्र लिखा कि वह रामगढ़ का शासन चलाने में पूरी तरह सक्षम हैं। उनके दो नाबालिग बेटे हैं। अपने बेटों के बालिग होने तक वह रामगढ़ की शासन व्यवस्था संभाल लेंगी।
रानी अवन्तीबाई ने पहला मोर्चा मण्डला के सीमावर्ती गांव खेरी के निकट लगाया। उस समय मण्डला का शासन कैप्टन वार्डेन के हाथों में था। कैप्टन वार्डेन अवन्ती बाई की गतिविधियों के प्रति पहले से ही सावधान था। अतः वह भी अपनी सेना के साथ खेरी में आ डटा।
रानी अवन्तीबाई ने मण्डला पर अधिकार करने के बाद रामगढ़ की ओर कूच किया तथा रामगढ़ के अंग्रेज तहसीलदार को मौत के घाट उतार कर रामगढ़ पर भी अपना अधिकार कर लिया।
इधर रामगढ़ के किले में खाद्य सामग्री पूरी तरह समाप्त हो चुकी थी व सैनिकों के पास गोला बारूद भी नहीं बचा था। अतः अवन्तीबाई ने अपने साथ कुछ चुने हुए वफादार सैनिक लिए और एक गुप्त द्वार से निकलकर देवहारगढ़ के जंगल में शरण ली।
कैप्टेन वार्डेन जब किले के भीतर पहुँचा तो रानी को न पाकर बौखला उठा। उसने नगर के भीतर भारी लूटमार की और फिर पूरा नगर उजाड़ने के बाद रानी को ढूँढ़ने देवहारगढ़ के जंगलों में पहुँचा।
रानी अवन्तीबाई के पास मुट्ठी भर सैनिक थे और वार्डेन के पास विशाल सेना। 20 मार्च, 1858 को दोनों के मध्य भीषण युद्ध हुआ। अवन्तीबाई ने अंग्रेजों से अंतिम क्षण तक लोहा लिया। इस युद्ध में अवन्तीबाई के सभी सैनिक मारे गये। अंत में वह चारों तरफ से अंग्रेजी सेना से घिर गयी। अचानक अवन्ती बाई के हाथ में एक कटार चमकी और अगले ही क्षण उसके सीने के पार उतर गयी।
कैप्टेन वार्डेन ने रानी अवन्तीबाई को गिरते देखा तो चकित-सा रह गया। वह अवन्तीबाई को जीवित पकड़ना चाहता था। किंतु अवन्तीबाई उसके निकट आने के पहले ही अपने प्राणों का बलिदान देकर बहुत दूर जा चुकी थीं।
- डॉ.
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